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कहीं अंधेरे, कहीं उजाले

ये जहां...
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छन्नू की गरीबी उपहास का विषय नहीं थी । सोचने का विषय थी। हर किसी को खुश रखना उसकी आदत थी ।वो कब सोता। कब जागता। कब भूखा रहता । न सरकार ने कभी जाना न ही करीबियों ने । तीन बेटियां, और कई साल बाद पैदा हुआ एक चार साल का लड़का ‘बदरु’ उसके घर का चिराग था। वो उस अंधेरी झोपड़ी में भी खुश था, जिसमें टीन की छांव छत की तरह थी, दरवाज़े के नाम पर लकड़ियों का जाल, और दीवारें गोबर से लीप कर बनाई गई थीं। घर में चूल्हा हर रोज़ जले, इसलिए वो महीने के तीसों दिन काम पर जाता, दिहाड़ी मजदूर होने का दंभ उसमें साफ दिखता था। क्योंकि उसको कभी किसी के सामने हाथ फैलाते नहीं देखा गया। मुनिया, बिट्टी, डिबिया और बदरु को वो बेइंतेहां प्यार करता था। जो कि किसी अपवाद सा था, क्योंकि तीन लड़कियों को उतना प्यार नहीं मिलता जितना एक लड़के को। उसे पिता होने का फर्ज़ पता था, क्योंकि बदरु के जन्म के वक्त उसकी बीवी भगवान को प्यारी हो गई थी। वो भी इसलिए कि छन्नू अपनी गर्भवती पत्नी का सहीं तरीके से ख्याल न रख सका था। बदरु, छन्नू की बीवी की आखिरी निशानी था। लेकिन इतने पर भी छन्नू अपने चारों बच्चों को समान प्यार देने की कोशिश करता। सरकारी योजनाओं की दस्तक छन्नू के दरवाज़े पर कभी नहीं हो सकी थी। इस बात को उसने शिकायत के रुप में स्थानीय प्रशासन को कई बार बताया था। लेकिन बहरी हुकूमत में सुनने वाला कौन? किसी ने उसके उस अंधेरे संसार में झांकने की कोशिश नहीं की, जिस संसार में सिर्फ उसकी किराये की झोपड़ी, और चार संतानें शामिल थीं। इसलिए हर योजना से बेफिक्र होकर उसने खुद को मजबूत बना लिया था, और अपने परिवार का भरण पोषण कर रहा था। जिनकी खुदी बुलंद हो, खुदा उनसे पूछते हैं उनकी रज़ाओं के बारे मे। परंतु यहां तो खुदा को भी याद नहीं रहा, कि एक छन्नू भी है, जो भूखा सो जाता है कई बार, अपनी संतान के मुख में निवाला देखने के लिए। छन्नू का वक्त उजाले में रहने वालों कीं तरह नहीं बीतता था। हाड़ तोड़ मेहनत और रोटी की जुगाड़ ही उसकी ज़िंदगी का मकसद था। ज़िंदगी के संघर्षों के बावजूद छन्नू टूटा कभी न था। क्योंकि वो जानता था, अगर वो ही हार गया, तो उसकी तीन जवान बेटियां, और एक कुछ सालों का बेटा कहां जाएंगे, क्या खाएंगे, क्या रात को ओढ़ेंगे, बरसात में कौन उनकी छत बनेगा। ऐसे कई सवालों की ज़िम्मेदारी उसके दिल पर बोझ तो थी, परंतु अपनी संतानों के सामने उसने ये बोझ ज़ाहिर न होने दिया। इसलिए वो हर रोज़ कमा लेता, और हर रोज़ अपने बच्चों को खिला देता, कभी कभी उसकी मेहनत उसके ऊपर भी इनायत हो जाया करती, जब छन्नू अपना पेट भी जमकर भरता । यही तो थी छन्नू की ज़िंदगी की नियति। कोठियों से सौ मीटर की दूरी पर मौजूद उसकी झोपड़ी में किसी त्योहार को रंगत न आती। जब हर घर जगमगाता, तब उसकी झोपड़ी एक दीये को भी तरस जाती। लेकिन बोतल में भरा मिट्टी का तेल, और लोहे की डिब्बी में बनी उजाले की जुगाड़ उसके घर को रोशन कर देती थी अक्सर। वो इसी मंद रोशनी में खुश था। 11 हज़ार बोल्ट बिजली की लाइन उसकी झोपड़ी के कई मीटर ऊपर से गुज़री तो थी, लेकिन उन घरों में गई थी, जो बिजली के बिल का भार सह सकते थे। वो आधुनिक युग में आदिम ज़िंदगी सिर्फ इसलिए जी रहा था, क्योंकि हमारी व्यवस्था में खामियों के लाख पैबंद थे। जिनको सरकार ने रफू करने की ज़हमत भी कभी न उठाई।

एक रोज़ छन्नू बीमार पड़ गया। वो बारिश का महीना था, और शायद छन्नू के परिवार के लिए मातम का महीना भी। क्योंकि उसकी बीवी, और उसकी एक संतान, जिसका ज़िक्र अभी तक मैने नहीं किया, इसी बारिश के महीने में काल के गाल में समा गई थी। इसी महीने में छन्नू की संतान को दिमागी बुखार हुआ था, वो अपनी संतान का महंगा इलाज न करा सका था, इसलिए उसका दूसरा बेटा ‘उजीता’ 6 साल पहले स्वर्ग सिधार गया था। और आज वही हालात छन्नू के सामने खुद थे। वो बीमार था। इलाज कराने वाला कोई नहीं। इकलौता कमाने वाला था, तो वो छन्नू ही था। उसका इलाज कौन कराता। वो कई दिन बिस्तर पर पड़ा रहा, अपनी सेहत के दुरुस्त होने का इंतज़ार करता रहा। क्योंकि अभी भी उसने एक एक रुपया कर कुछ पैसे बचा रखे थे हारी बीमारी के लिए। इन्हीं पैसों के ज़रिए वो अपना इलाज नीम हकीम से करवा रहा था। इसी दौरान उसने अपनी दो बेटियों मुन्नी और बिट्टी को अपनी जगह काम पर भेज दिया, ताकि कुछ पैसे और आ सकें, घर का चूल्हा फिर से जल सके। मुन्नी और बिट्टी इस योग्य नहीं थीं, कि छन्नू की जगह काम कर सकती थीं, वैसे सरकारी नियम भी इस बात की इजाज़त नहीं देते कि कोई बाल श्रम करे। इस बात का न तो उन बच्चियों को इल्म था, और न ही छन्नू अपनी मुफलिसी में ये बातें मुन्नी और बिट्टी को सिखा सका था। गरीबी गुनहगार नहीं फिर भी गरीबों की मजबूरियां गुनाह करवाती है। छन्नू से भी वही गुनाह हुआ अपनी बीमारी के दौरान। एक NGO की नज़र उन मुन्नी और बिट्टी पर पड़ी, जिन्होंने उस बचपन को बिखरने से तो रोक लिया, लेकिन छन्नू की झोपड़ी तक वो NGO दस्तक न दे सकी। धीरे धीरे वक्त हाथों से खिसक रहा था। छन्नू बिस्तर से अभी तक न उठ सका था। वो जानता था कि जिस संगठन ने उसकी बेटियों को साथ न्याय किया है, असल में वही न्याय उसकी ज़िंदगी के साथ अन्याय बन गया था। क्योंकि ज़िम्मेदारी जब अधूरी हो, तो मकसद भी अंजाम तक नहीं पहुंचते। इलाज के अभाव में छन्नू की हालत बिगड़ने लगी थी, उसका अब तक कोई रहबर उसके सामने न था, और एक दिन वो हुआ जैसा भूख से जूझते, बीमारियों से लड़ते हर इंसान का होता है। छन्नू अपनी बीमारी की वजह से ज़िंदगी हार गया था, उसने गेहूं के खाली डिब्बे में रखी सल्फास को निकाल लिया, और खुद अपने पूरे परिवार को खाने में मिलाकर दे दिया। वो भोर उस झोपड़ी के लिए मातम भरी थी। रोने वाला कोई नहीं लेकिन पांच लाशें उस झोपड़ी में पड़ी थी। छन्नू, मुनिया, बिट्टी, डिबिया, और बदरु मौत की नींद सो चुके थे। उस झोपड़ी से जब शवों की सड़ांध बाहर आने लगी, तब लोगों को अहसास हुआ कि इस झोपड़ी में पांच मौतें एक साथ हो गईं। सभी की संवेदनाएं उन मौतों के साथ थीं। चंदा किया गया। अर्थी का इंतज़ाम किया गया। और सौ मीटर दूर मौजूद उस उजाले की दुनिया ने उस अंधेरी दुनिया का दाह संस्कार कर दिया। ये इत्तेफाक नहीं, हमारी व्यवस्था की हकीकत है, हमारे समाज की सच्चाई है। कहीं अंधेरे । कहीं उजाले।

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